मिट्टी की महक और समय की धारा में
“मिट्टी की महक और समय की धारा में” एक मार्मिक कविता संग्रह है, जो जीवन के सार को बेहद संवेदनशीलता से प्रतिबिंबित करता है। इस पुस्तक की प्रत्येक कविता में भावनाओं, परंपराओं और समय के अपरिहार्य परिवर्तन का सुंदर संवाद मिलता है।
ग्रामीण सादगी की सुगंध से शुरू होकर आधुनिक अस्तित्व की जटिलताओं तक, डॉ. भारद्वाज की रचनाएँ पाठकों को अपनी जड़ों से जोड़ने और जीवन की धारा पर प्रतिबिंबित करने का अवसर प्रदान करती हैं। यह संग्रह प्रेम, वियोग, आशा और आत्मचिंतन का समरस मिश्रण है, जिसे भाव से लिखा गया है और जो हर पाठक की आत्मा को छू जाता है।
अगर आप कविता के शौकीन हैं, जीवन के अर्थ की खोज में लगे हैं, या समय व मानवता के बीच के गहरे संबंध को महसूस करना चाहते हैं, तो यह संग्रह आपके मन और हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ देगा।
हमने हाल ही में डॉ. प्रशान्त कुमार भारद्वाज से उनकी कविता संग्रह “मिट्टी की महक और समय की धारा में” पर एक विशेष बातचीत की :
“मिट्टी की महक और समय की धार में” जैसे शीर्षक चुनने की प्रेरणा क्या थी?
जब मैं छोटा था, गर्मियों की छुट्टियों में पिताजी के साथ गाँव जाया करता था।या कभी कभी तो दादा जी के साथ खुद भी चला जाता था। लेकिन असल यात्रा तब शुरू होती थी, जब गांव में बस से उतरकर बाबा का हाथ पकड़कर उस कच्चे रास्ते पर चलना होता था — जहां रास्ते की हर धूलकण में एक कहानी थी।
मेरे बाबा (पिताजी के पिता) के साथ बिताए वो दिन — सुबह की लाठी के साथ खेत की सैर, दोपहर को आम के पेड़ों के नीचे बैठना, और शाम को चौपाल पर गांव वालों की बातों में घुल जाना — ये सब मेरे भीतर अब भी धड़कता है।
उस समय एक अपनापन था — लोग बिना वजह भी मिलने आते थे, बातें होती थीं, रिश्ते खुद को निभाते थे।
आज के समय में वही मिट्टी खोखली होती जा रही है। अपनापन, जो तब स्वाभाविक था — अब ‘प्रूव’ करना पड़ता है। शायद इसके लिए हम सब जिम्मेदार हैं — जो मिट्टी से दूर होते जा रहे हैं।
यह शीर्षक मेरी आत्मा का वह टुकड़ा है जिसे मैंने वर्षों बाद शब्दों में पिरोया है।
इस किताब की रचना प्रक्रिया कैसी रही—कितने समय में लिखा, और क्या कोई खास चुनौती सामने आई?
यह किताब किसी तयशुदा योजना का परिणाम नहीं है।
यह तो भावनाओं की धीमी-धीमी सुलगती चिंगारियों से बनी वो रचना है, जो कभी किसी बारिश की रात आई, कभी किसी अकेलेपन की सुबह।
चुनौती यह नहीं थी कि क्या लिखना है — बल्कि यह कि जो जिया है, वो बिना दिखावे के, पाठकों को महसूस भी हो।
शब्द मिल जाते हैं, भाव पकड़ना कठिन होता है।
आप भाषा को सरल रखते हुए भी गहराई कैसे बनाए रखते हैं—यह संतुलन कैसे साधते हैं?
मैं मानता हूँ कि भाषा का सबसे सुंदर रूप वही है, जो मन से निकले और मन तक पहुँचे।
मैं कठिन शब्दों के पीछे छुपने के बजाय सरल शब्दों में गहरे अर्थ भरने का प्रयास करता हूँ।
जब बात सच्ची हो, तो भाषा स्वयं विनम्र हो जाती है।
मैं तो बस अपनी भावनाओं को उतनी ही सरलता से कहता हूँ, जितनी सहजता से एक बच्चा अपनी माँ से बात करता है।
आपका निशाना किस पाठक वर्ग पर है—क्या यह युवा, बुज़ुर्ग, या कविता-प्रेमी वर्ग तक सीमित है?
मेरी लेखनी किसी एक वर्ग को नहीं, एक भावना को संबोधित करती है।
यह किताब उस युवा के लिए है, जो अपने अतीत को तलाश रहा है,
उस वृद्ध के लिए है, जिसने बहुत कुछ देख लिया है पर अब भी कुछ कहना चाहता है।
यह उन पाठकों के लिए है जो कविता में कविता से अधिक स्वयं को खोजते हैं।
इस पुस्तक के ज़रिए आप पाठकों में क्या मुख्य संदेश या अनुभूति जगाना चाह रहे हैं?
मैं चाहता हूँ कि पाठक इस पुस्तक को पढ़ते-पढ़ते एक बार ठहर जाएं।
अपने जीवन की रफ्तार कम करें… और महसूस करें —
कि जो बीत गया है, वह केवल समय नहीं था — वह हमारी ज़िंदगी का सबसे सुगंधित हिस्सा था।
मैं चाहता हूँ कि पाठक मेरी कविताओं में अपना अतीत, अपना वर्तमान, और शायद अपना खोया हुआ ‘मैं’ खोजें।
यह किताब उन्हें कहती है —
“रुको, सुनो… जीवन अभी बाकी है, वो जो छूट गया है, उसे फिर से जिया जा सकता है।”
मैं उन्हें उनके भीतर ले जाना चाहता हूँ — जहाँ अब भी एक सोंधी सी याद बाकी है।
क्या यह किताब एक सामाजिक चेतना की ओर भी संकेत करती है—जैसे पारंपरिक मूल्यों, प्रकृति-अनुभव, या समय की उलझनों पर विचार?
जी हाँ, यह किताब केवल कविता नहीं — एक मौन चीख है।
यह उस समय की तलाश है जब रिश्ते डिजिटल नहीं, धड़कनों से चलते थे।
जब पेड़ छाया भी देते थे और सिखाते भी थे।
जब एक कटोरी में सब खाते थे, और मन भी बाँटते थे।
आज जब सब कुछ ‘तेज’ हो गया है — यह पुस्तक पाठकों से कहती है, “धीरे चलो… कहीं तुम खुद से ही आगे न निकल जाओ।”
आपके लिए कवि होने का क्या अर्थ है?
मेरे लिए कवि होना, लोगों की चुप्पियों को सुनना है।
कवि वह होता है जो समाज की मुस्कान में छुपे आंसू देख ले —
और फिर उन्हें इतना संवेदनशील बना दे कि पढ़ने वाला भी रो न सही, सोचने लगे।
कवि होना मेरे लिए एक जिम्मेदारी है — शब्दों से दुनिया को थोड़ा और मानवीय बनाना। भीड़ में सबसे चुप रहना और सबसे ज़्यादा सुन पाना है।
कवि वही है जो दूसरों की आँखों में छिपे आँसू पढ़ सके,
और बिना शोर किए उन्हें शब्दों में बदल दे।
कविता मेरे लिए दर्पण नहीं, जल है
जिसमें झांकने वाला अपनी गहराई देख सके।
क्या आप पाठकों को कोई ‘होमवर्क’ देना चाहेंगे?
हाँ,बिल्कुलऔर यह गृहकार्य अंक के लिए नहीं, अंतर की यात्रा के लिए है:
● एक दोपहर मोबाइल बंद कीजिए।
● घर के किसी कोने में बैठिए।
●अपनी दादी-नानी के हाथों से लिखे किसी पुराने खत को याद कीजिए…
●या मिट्टी में एक दीया जलाइए।
फिर देखिए,
“मिट्टी की महक और समय की धार”
कैसे आपके भीतर उतर आती है…
● किसी दिन अपने पुराने एलबम उठाइए…
● या किसी बंद संदूक से पुराने खत निकालिए…
● या बिना कारण किसी पुराने दोस्त को फ़ोन कीजिए…
●या बस मिट्टी की खुशबू महसूस कीजिए…
और खुद से पूछिए —
“क्या मैं अब भी वहीं हूँ, जहाँ से चला था…?”
यही है आपका होमवर्क — खुद की मिट्टी से फिर से जुड़ना।
From the Editor's desk
Vanshika Gupta